Wednesday, 15 April 2015

(हिंदी कविता) सपनो की हकीकत

सपनो की हकीकत 

आज के इस वक़्त में 
हमें कपड़ा, रोटी और मकान से ज्यादा 
और भी कुछ चाहिये 
पर महंगाई के उतार चढ़ाव के इस दौर में 
कुछ ज्यादा मिलने की उम्मीद हमें नहीं है 
हैरान परेशान होने के दिन अब लद गये है 
हमने मान लिया है रुपया हमारा बाप है 
और हमनें उसकी गुलामी स्वीकार कर ली है 
हम धीरे धीरे चलते हैं  
पर हमारे सपने हमसे भी तेज चलते का साहस रखते है 
हमारे कुछ सपने सिक्कों के सहारे खड़े है 
जब सिक्के गिरे तो सपने भी गिरे 
जो सपने फक्क्ड़ थे वे चलते चले गये 
हम समझ गये उसकी जमीनी हकीकत 
वें सपने चलते गये और दुनियादारी से 
बाहर होते गये 
कुछ लोग बाज़ार में खरीदने निकले 
लेकिन मन मार कर खरीद भी लाये 
और हम भी खरीदने निकले 
पर दाम सुन कर निरास हो लौट आये 
हमनें इस जग में बहुतों से 
जीतने का दावा किया 
पर बहुत कोशिशों के बाद भी 
हम मँहगाई से जीत नहीं पाये !


अशोक कुमार