Tuesday, 14 April 2015

(हिंदी कविता) बढ़ती महंगाई

बढ़ती महंगाई 

भारत देश की सरकार निराली,

कही नहीं ऐसी पाओगे…… …
कहती 'कम होगी मंहगाई '
हर बरस बढ़ती पाओगे .......…
दो के छः और छः के बारह,
दाम सदा ही बढ़ता जाता,
सब्जी, चावल हो या आटा
दूर से हमको मुंह है चिढ़ाता !
अब खाली बैठे न हमसे,
चीनी यूँ  फांकी जाती है..........
एक चाय की कीमत भी तो,
पांच रुपए आंकी जाती है !
गरीब बेचारा क्या खायेगा …...
खुद को भी जो बेच आएगा.......
एक जून की रोटी भी तो,
बच्चो को नहीं दे पायेगा !
फल मिष्ठान तो बन गए सपना,
खाना मिल जाए क्या कम है …
खीर पूरी का गया जमाना,
सुखी रोटी, आँखे नम है। .........


अशोक कुमार  


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