Thursday, 16 April 2015

(हिंदी कविता) आखिर हम कहां जाए

आखिर हम कहां जाए

मिर्च से तीखापन
चीनी से मीठापन
करेले का कड़वापन
दूध - घी का सौधापन
कहीं नदारद है
हम आखिर कहां जाए
इस महंगाई पर लानत है
दाल अब गलती नहीं
भाजी कहीं मिलती नहीं
क्या खांए, क्या ख़रीदे
रेजगारी चलती नहीं
पसीना भी अब फीका हुआ
नमक कंही नदारद है
हम आखिर कहाँ जाए
इस महंगाई पर लानत है
चावल ने पकना छोड़ा
गैहू ने सबसे मुंह मोड़ा
हल्दी पीली नहीं लगती
मसालों से खुसबू नहीं मिलती
पानी से गीलापन नदारद है
हम आखिर कहाँ जाए
इस महंगाई पर लागत है
खुशियां हुई डेबिट
परेशानियां है क्रेडिट
ब्याह हुआ मुश्किल
घर होता नहीं हासिल
हसरतों की सूची नदारद है
हम आखिर कहाँ जाए
इस महंगाई पर लानत है 


अशोक कुमार  

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