मै प्रखर आप सब के लिये लाया हूँ अपनी लिखी एक कविता का कुछ भाग । ये कविता उस स्थिति का वर्णन करती है जब एक गरीब इंसान को इतना सताया जाता है कुछ अमीरों द्वारा तो उसके मन में कई तरह के प्रश्न उठते हैं उसी को इसके माध्यम से दर्शाया है मैंने। कविता का शीर्षक है “असली गरीब मैं हूँ या तुम?” कैसी लगी ये बताना मत भूलिएगा।
असली गरीब मैं हूँ या तुम?
तुम तो तरसते हो चैन की नींद सोने को,
हमारा क्या है? हमारे पास क्या है खोने को?
हम जैसों का दिनभर खून पीते हो,
हमेशा चोर लफंगो से डर कर जीते हो।
तुम्हारे चेहरे से मासूमियत हो गई है बिल्कुल गुम,
अब बताओ असली गरीब मै हूँ या तुम?
एक बात बताओ जरा,
तुम हम पर क्यूँ इतना जुल्म ढ़ाते हो?
खुद गल्तियाँ करके ढ़ेरों ,
हमें उसमें क्यूँ फंसाते हो?
फिजूलखर्च करने को,
समझते हो अपनी शान।
जब आती है बारी हमें तनख्वाह देने की,
तो क्यूँ लेते हो सीना तान?
क्या इसमें भी मेरा ही है कोई जुर्म ?
अब बताओ असली गरीब मैं हूँ या तुम?